भागवत सेवा

 

 

    भगवान् की सेवा से मिले हर्ष से बढ़कर और कोई हर्ष नहीं हो सकता ।

 

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    भगवान् की सेवा से बढ़कर और कोई हर्ष नहीं है ।

१४ मई, १९५४

 

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     हमें हमेशा पूरी तरह, ऐकान्तिक रूप से, भगवान् के सेवक होना चाहिये ।

३१ अक्तूबर, १९५४

 

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     हमें भगवान् के सिवा और किसी की सेवा में न होना चाहिये ।

 

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    सभी पसन्दों से ऊपर हम भगवान् की सेवा में रहना चाहते हैं ।

 

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    भगवान् की सेवा में रहना उपलब्धि पाने का सबसे निश्चित साधन है ।

 

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(भगवान् की सेवा और ध्यान के बारे में)

 

दोनों समान रूप से अच्छे हैं । फिर भी, केवल ध्यान की अपेक्षा सेवा द्वारा अधिक पूर्ण उपलब्धि पायी जा सकती है ।

 

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    सचाई के साथ भगवान् की हर सेवा साधना है ।

    सेवा करने की ललक में वृद्धि प्रगति का निश्चित लक्षण है ।

जनवरी, १९६६

 

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    जीवन में तुम जो कुछ भी करो, उसे किसी और की नहीं भगवान् की ही सेवा के रूप में करो ।

 

    तुम जो कुछ हो, जो कुछ सोचते या अनुभव करते हो उसके बारे में तुम, और किसी के नहीं, भगवान् के प्रति ही उत्तरदायी हो ।

 

    वही तुम्हारे जीवन और तुम्हारी सत्ता के एकमात्र 'प्रभु' हैं । अगर तुम पूरी सचाई के साथ पूरी तरह उनके आगे समर्पण करो तो वे तुम्हारा उत्तरदायित्व ले लेंगे और तुम्हारा हृदय शान्त रहेगा ।

 

    बाकी सब 'अज्ञान' के जगत् का है जिस पर अज्ञान का शासन है, जिसका अर्थ है अस्तव्यस्तता और दुःख-कष्ट ।

 

    आशीर्वाद ।

१९६६

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    ऊर्जा सतत गतिशील होती है । वह तुम्हारी भौतिक सत्ता में (मन, प्राण और शरीर में) प्रवेश करती और निकल जाती है । जब वह जिसे ''तुम'' मानते हो उसमें निवास करती है उस समय तुम्हें उसे भगवान् के अर्पित कर देना और 'उनकी' सेवा में लगाना चाहिये ।

 

    तब अपने-आप तुम हर क्षण वही करोगे जो भगवान् तुमसे कराना चाहते हैं ।

१२ दिसम्बर, १९६७

 

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    समस्त जीवन भगवान् की ओर अभिमुख, भगवान् के अर्पित, भगवान् की सेवा में हो ताकि थोड़ा-थोड़ा करके वह भगवान् की अभिव्यक्ति बन जाये ।

३० जनवरी, १९७३

 

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